आसमान अमृत कलश करके बूँदों की बौछार
प्रेम रस में डुबो देता हैं धरती का आकार।
गर्जना से गूंज उठी, जब होती बादलों की टकरार,
रोमांचित धरती अपनी खुशबू फैलाती दिशाएं चार ।
ख़त्म हो चला हैं अब खुशियों का वह त्यौहार।
सूख रहा धरती का सीना, पड़ गए उनमें दरार।
अब तो बादल भंवरो के भांति मंडराते आते जाते हैं ,
और धरती, तुम फिर कब आओगे, केवल पूछे जाती हैं …
© Vidya Venkat (2005)
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