
बचपन में रात को रेल की खिड़की की ओर बैठकर
आसमान में आधा चाँद ताकना याद है मुझे.
आश्चर्य होता था, चाहे कितनी ही गति से क्यों न
रेल का चाक चल रहा हो, पटरियों को घिसते, चीखते,
रात को आकुल करते हुए, मगर वो आधा सा चाँद
वहीँ एक तस्वीर की तरह आसमान में चिपका रहता था.
तुम उस आधे चाँद की तरह हो. मेरी पृथ्वी भले ही तुमसे
दूर क्यों न हो मगर तुम्हारी स्मृति मेरी हर रात को
अपनी नर्म रौशनी से सहलाती रहती है…